
शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2008
महान समाजसेवक बाबा आमटे नही रहे

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008
नखरे सानिया मिर्जा के!

बुधवार, 30 जनवरी 2008
महान कौन? गांधीजी या क्रिकेट?

आम लोग अपनी व्यस्त दिनचर्या की वज़ह से इन बातों को याद नही रख पाते, और मीडिया इन बातों को याद रखना नही चाहता. कल ६०वि पुण्यतिथि के उपलक्ष में बापू की अस्थियों को मुम्बई के गिरगांव चौपाटी में विसर्जित किया गया. इस मौके पर महेज सौ लोग भी उपस्थित नही थे. ये वो देश है जहाँ २०-२० मैच में एक घंटा आढा-तिरछा बल्ला घुमाने के बाद हमारी टीम जब वर्ल्ड कप जीत कर लाती है तो मुम्बई में इनका ऐसा स्वागत किया जाता है माओनी दुनिया जीत कर आए है. लोग अपने काम छोड़कर टीम के सदस्यों की एक झलक पाने के लिए टूट पढ़ते है. और मीडिया सुबह से उन सड़कों की ख़ाक छान रहा होता है जहाँ से वो जुलूस गुजरने वाला है.
हम हिन्दुस्तानियों के दिल में अब सबसे महत्वपूर्ण कोई बात अगर है तो वो है क्रिकेट. क्रिकेट हमारा धर्म बन गया है. हमारे न्यूज़ चैनल्स क्रिकेट के अलावा कुछ और दिखाना नही चाहते, मानो न्यूज़ चैनल नही बल्कि क्रिकेट चैनल हो. दरअसल उन्हें ये दर्जा दे ही देना चाहिए.
मुम्बई में जिस दिन एक कार धमाके में चार बच्चों की मौत हुई, तब हमारे न्यूज़ चैनल बड़े गर्व से दिन भर ये दिखाते रहे की हरभजन सिंग मामले में कैसे हिंदुस्तान ने ऑस्ट्रेलिया को झुका दिया. हिंदुस्तान की इस जीत पर कोलकाता और अन्य जगहों पर फटाके जलाये गए, जिसे दिखाना हमारे न्यूज़ चैनल्स कतई नही भूले. लेकिन किसी के पास इतना वक्त नही था की उन मासूम बच्चों की मौत की ख़बर दिखा सके. उसमें किसकी गलती थी, ये सामने ला सके.
दुसरे दिन, जब मानवीय अंगों के नाजायज धंधे की बात सामने आई, तब हमारे चैनल्स दिखा रहे थे की "चोट लगने की वजेह से युवराज सिंग पहले वन-डे नही खेलना चाहते".
और आज, गांधीजी की अस्थियों का विसर्जन कल किस तरह किया गया ये दिखाने की बजाय, हमें दिखाया जा रहा है "हरभजन मामले में दिए गए निर्णय से रिक्की पोंटिंग खुश नही".
जब जिम्मेदारी की बात आती है, तो हमारे न्यूज़ चैनल्स धंधे की बात करते है, और ये कहते हुए अपना पल्लू झाड़ना चाहते है की "हम वही दिखाते है जो लोग देखना चाहते है". क्या ये तर्क सही है? मुझे नही लगता. कल अगर लोग ये कहे की हाथ में तलवार और बंदूकें लेकर घूमने से उन्हें सुरक्षित महसूस होता है, तो क्या लोगों में तलवारें और बंदूकें बाटें जायेंगे?
कुछ परिस्तिथियाँ जितनी ख़राब होती है उतनी वो पहले नज़र नही आती. हम लोगों के लिए सचिन तेंदुलकर, वीरेंदर सहवाग और अनिल कुंबले अगर महात्मा गाँधी से बढ़कर होने लगे, तो ये एक खतरे की घंटी हो सकती है. क्या हमारा देश इतना संपन्न हो चुका है की अब क्रिकेट के अलावा कुछ बचा ही नही है. हमारे देश में अभी भी हर नागरिक दो वक्त का खाना नही मिलता. लोग अभी भी रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत ज़रूरतों के लिए मोहताज है. और ऐसी हालातों को नज़रंदाज करके अगर हम क्रिकेट को महत्व देना चाहते है, तो येही लगता है की गांधीजी ने देश के लिए इतना बलिदान करने की बजाय क्रिकेट खेलना चाहिए था. कम से कम हम उन्हें आज याद तो करते!
बुधवार, 28 नवंबर 2007
एक रहस्यमय मौत!
जब भी मैं कोई नई फ़िल्म देखता हूँ, ये जानने की कोशिश ज़रूर करता हूँ की वो फ़िल्म लोगों को पसंद या नापसंद आने का कारण क्या है। हर फ़िल्म का बॉक्स-ऑफिस प्रदर्शन उसके कई पहलुओं पर निर्भर करता है. हालाकी हमारे देश में ये भविष्यवाणी करना बहुत मुश्किल है की कौनसी फ़िल्म अच्छी चलेगी और कौनसी नही. यहाँ अच्छी-अच्छी कहानियाँ भी बुरी तरह पिट चुकी है, और कुढा-कचरा भी महेंगे दाम बिका है.
इस लेख में "खाकी" का जिक्र करना चाहता हूँ.आज तक मैं यह समझने में असफल रहा हूँ की "खाकी" फ़िल्म बॉक्स-ऑफिस पर कैसे पिट गई? मुझे अभी तक ऐसा कोई कारण नज़र नही आता जिस वजेह से इस फ़िल्म के पिटने की ज़रा-सी भी सम्भावना बनती हो. ऐसा एक कारण ढूंढने की कोशिश में मैंने यह फ़िल्म कई बार देखी है, लेकिन मुझे कोई कारण नही मिला. बल्कि हर बार मेरा प्रश्न और गहराता गया की "यह फ़िल्म लोगों को पसंद क्यों नही आई?"
इस फिल्म में वह सबकुछ है जो हमारे देश में पसंद किया जाता है. सबसे पहले तो सितारों की महफिल, जिसमें शामिल है अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, अक्षय कुमार, ऐश्वर्या राय, तुषार कपूर, अतुल कुलकर्णी, लारा दत्ता, तनुजा और अन्य जाने-माने कलाकार. इस फ़िल्म की दूसरी बढ़ी विशेषता थी राजकुमार संतोषी, जो हिंदुस्तान के बेहतरीन लेखक-निर्देशकों में से एक है. तीसरी बात थी इस फ़िल्म के लोकप्रिय गीत, जिहने राम संपत ने धुनों से सजाया था. और हमारे यहाँ सबसे आख़िर में गिना जाने वाला, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पहलू, इस फ़िल्म की कहानी.
मैं जितनी बार भी इसे देखता हूँ, "खाकी" मुझे अच्छी और मजबूत कहानियाँ लिखने के लिए प्रेरित करती है. लेकिन इस फ़िल्म की बॉक्स-ऑफिस पर दर्दनाक मौत मेरे लिए अभी भी एक रहस्यमय घटना है!
मंगलवार, 27 नवंबर 2007
ये शीशे ये सपने, ये रिश्ते ये धागे
ये शीशे ये सपने, ये रिश्ते ये धागे,
किसे क्या खबर है, कहाँ डूब जाये।
मुहब्बत के दरिया में तिनके वफ़ा के,
न जाने ये किस मोड़ पर डूब जाये॥
अजब दिल कि बस्ती, अजब दिल कि वादी,
हर एक मौसम नयी ख्वाहिशों का।
लगाए है हमने भी सपनों के पौधे,
मगर क्या भरोसा यहाँ बारिशों का॥
मुरादों कि मंजिल के सपनों में खोये,
मोहब्बत कि राहों में हम चल पड़े थे।
ज़रा दूर चलके जब आँखें खुली तो,
कड़ी धुप में हम अकेले खड़े थे॥
जिन्हें दिल से चाहा, जिन्हें दिल से पूजा,
नज़र आ रहे है वही अजनबी से।
रवायत शायद ये सदियों पुरानी,
शिक़ायत नही है कोई ज़िंदगी से॥
आज के दौर में ए दोस्त ये मंजर क्यों है?
आज के दौर में ए दोस्त ये मंजर क्यों है?
ज़ख्म हर सर पे, हर हाथ में पत्थर क्यों है?
जब हकीक़त है कि हर जर्रे में तू रहता है,
फिर ज़मीन पर कहीं मस्जिद, कहीं मंदिर क्यों है?
अपना अंजाम तो मालूम है सबको फिर भी,
अपनी नज़रों में हर इंसान सिकंदर क्यों है?
ज़िंदगी जीने के काबिल ही नही अब 'फ़कीर',
वर्ना हर आँख में अश्कों का समुन्दर क्यों है?
शेख़जी थोड़ी-सी पीकर आइये
शेख़जी थोड़ी-सी पीकर आइये,
मय है क्या शह फिर हमें बतलाइए।
आप क्यों है सारी दुनिया से खफ़ा?
आप-भी दुश्मन मेरे बन जाइए।
क्या है अच्छा, क्या बुरा है बन्दा-नवाज़?
आप समझे तो हमें समझाइए।
जाने दीजे अक्ल कि बातें जनाब,
दिल कि सुनीये और पीते जाइए।
कौन कहता है तुझे मैंने भुला रखा है
कौन कहता है तुझे मैंने भुला रखा है,
तेरी यादों को कलेजे से लगा रखा है।
लब पे आहें भी नही, आखँ में आंसू भी नही,
दिल ने हर राज़ मुहब्बत का छुपा रखा है।
तुने जो दिल के अँधेरे में जलाया था कभी,
वो दिया अज भी सीने में जला रखा है।
देख जा आके महकते हुए ज़ख्मों कि बहार,
मैंने अब तक तेरे गुलशन को सजा रखा है।
बस इक़ झिझक है येही हाल-ए-दिल सुनाने में
बस इक़ झिझक है येही हाल-ए-दिल सुनाने में,
कि तेरा जिक्र भी आएगा इस फ़साने में।
बरस पडी थी जो रुख़ से नकाब उठाने में,
वो चांदनी है अभी तक मेरे ग़रीब-खाने में।
इसी में इश्क़ कि किस्मत बदल भी सकती थी,
जो वक़्त बीत गया मुझको आज़माने में।
ये कह कि टूट पडा शाख़-ए-गुल से आखरी फूल,
अब और देर है कितनी बहार आने में।
सोमवार, 26 नवंबर 2007
हमारे 'जीवित' गाँव
सिर्फ कुछ घंटे उस गाँव में गुजारने के बाद ऐसा लगा कि ज़िंदगी उन चीजों के बगैर भी गुजारी जा सकती है जिन्हें हम अपने जीवन का अभिन्न अंग मान चुके है। उस गाँव में किसी भी मोबाइल का नेटवर्क नही रहता, तो हम लोग ना तो किसी को फ़ोन कर सके और न ही किसी से फ़ोन पर बात कर सके। फिर भी सबकुछ अपनी जगह पर था। शाम होते ही जहाँ हम शहर वाले उजालों कि तलाश में भागा करते है, गाँव में शाम होते ही अँधेरा और घना हो जाता है। गाँव में शाम के बाद लोड-शेडिंग कि 'व्यवस्था' सरकार ने कर रखी है। लेकिन अभी भी ज़मीन पर बसे गाँव में एक छोटे दिए कि बाती ही रौशनी के लिए काफी होती है।
जिन वस्तुओं को हम 'अँन्टिक' कहकर घर के किसी कोने में धुल खाने के लिए रख देते है, वो वस्तुएं आज भी गाँव के जीवन का एक हिस्सा है। अगर सही में कुछ 'अँन्टिक' बनकर रह गया है तो वो ये सुंदर जीवन है, जिसे हम स्वेच्छा से छोड़ आये है और उस ओर मुड़कर भी देखना नही चाहते। जीवन का वो रंग बस उन गाँव में ही मिल सकता है, हमारे पत्थरों के जंगल में नही।