बुधवार, 28 नवंबर 2007

एक रहस्यमय मौत!

-- शैलेश नरवाडे

जब भी मैं कोई नई फ़िल्म देखता हूँ, ये जानने की कोशिश ज़रूर करता हूँ की वो फ़िल्म लोगों को पसंद या नापसंद आने का कारण क्या है। हर फ़िल्म का बॉक्स-ऑफिस प्रदर्शन उसके कई पहलुओं पर निर्भर करता है. हालाकी हमारे देश में ये भविष्यवाणी करना बहुत मुश्किल है की कौनसी फ़िल्म अच्छी चलेगी और कौनसी नही. यहाँ अच्छी-अच्छी कहानियाँ भी बुरी तरह पिट चुकी है, और कुढा-कचरा भी महेंगे दाम बिका है.

इस विषय पर आगे बढ़ने से पहले मैं ये लिखना ज़रूरी समझता हूँ की मेरी पसंदीदा फिल्में कौनसी है, ताकि पाठक को इस बात का अंदाजा आ जाए की फिल्मों को अच्छा-बुरा नापने के मेरे माप-दंड कैसे है. मेरी पसंदीदा फिल्में है "मुन्नाभाई एमबीबीएस" , "लगान" और "खाकी".
इस लेख में "खाकी" का जिक्र करना चाहता हूँ.आज तक मैं यह समझने में असफल रहा हूँ की "खाकी" फ़िल्म बॉक्स-ऑफिस पर कैसे पिट गई? मुझे अभी तक ऐसा कोई कारण नज़र नही आता जिस वजेह से इस फ़िल्म के पिटने की ज़रा-सी भी सम्भावना बनती हो. ऐसा एक कारण ढूंढने की कोशिश में मैंने यह फ़िल्म कई बार देखी है, लेकिन मुझे कोई कारण नही मिला. बल्कि हर बार मेरा प्रश्न और गहराता गया की "यह फ़िल्म लोगों को पसंद क्यों नही आई?"
इस फिल्म में वह सबकुछ है जो हमारे देश में पसंद किया जाता है. सबसे पहले तो सितारों की महफिल, जिसमें शामिल है अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, अक्षय कुमार, ऐश्वर्या राय, तुषार कपूर, अतुल कुलकर्णी, लारा दत्ता, तनुजा और अन्य जाने-माने कलाकार. इस फ़िल्म की दूसरी बढ़ी विशेषता थी राजकुमार संतोषी, जो हिंदुस्तान के बेहतरीन लेखक-निर्देशकों में से एक है. तीसरी बात थी इस फ़िल्म के लोकप्रिय गीत, जिहने राम संपत ने धुनों से सजाया था. और हमारे यहाँ सबसे आख़िर में गिना जाने वाला, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण पहलू, इस फ़िल्म की कहानी.

राजकुमार संतोषी और श्रीधर राघवन द्वारा लिखी यह कहानी आपको तीन घंटे अपनी जगह से उठने नही देती. आप सोच नही सकते की अगले दस मिनट में क्या होगा. फ़िल्म के कुछ दृश्य आपको ख़ुद को भुला देने पर मजबूर कर देते है. भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ हम सभी के मन में जो गुस्सा है, उसे बखूबी इस फ़िल्म में चित्रित किया गया है. एक कमजोर इंसान किस तरह मजबूर होता है इसका जीवित उदाहरण इस फ़िल्म में है.

मैं इस फ़िल्म को जितनी बार देखता हूँ, मुझऐ इस से उतना ही प्यार होता जाता है. मैं भी एक लेखक हूँ, और इसीलिए समझ सकता हूँ की ऐसी एक परी-पूर्ण कहानी लिखने में कितनी मेहनत, साहस और बुद्धि लगती है. मैं इस सच्चाई से भी अवगत हूँ की हमारे हिंदुस्तान में बनने वाली सौ फिल्मों मैं, केवल एक या दो फिल्मों की कहानी इतनी मजबूत होती है.

मुझे यह कहने में ज्यादा सोच-विचार करने की ज़रूरत नही है की "खाकी" राजकुमार संतोषी की अब तक की सबसे अच्छी कलाकृति है. यह फ़िल्म संतोषी को एक फिल्मकार के रूप में अलग ऊचाई पर रखती है.
मैं जितनी बार भी इसे देखता हूँ, "खाकी" मुझे अच्छी और मजबूत कहानियाँ लिखने के लिए प्रेरित करती है. लेकिन इस फ़िल्म की बॉक्स-ऑफिस पर दर्दनाक मौत मेरे लिए अभी भी एक रहस्यमय घटना है!

मंगलवार, 27 नवंबर 2007

ये शीशे ये सपने, ये रिश्ते ये धागे

--- सुदर्शन फ़कीर

ये शीशे ये सपने, ये रिश्ते ये धागे,
किसे क्या खबर है, कहाँ डूब जाये।
मुहब्बत के दरिया में तिनके वफ़ा के,
न जाने ये किस मोड़ पर डूब जाये॥

अजब दिल कि बस्ती, अजब दिल कि वादी,
हर एक मौसम नयी ख्वाहिशों का।
लगाए है हमने भी सपनों के पौधे,
मगर क्या भरोसा यहाँ बारिशों का॥

मुरादों कि मंजिल के सपनों में खोये,
मोहब्बत कि राहों में हम चल पड़े थे।
ज़रा दूर चलके जब आँखें खुली तो,
कड़ी धुप में हम अकेले खड़े थे॥

जिन्हें दिल से चाहा, जिन्हें दिल से पूजा,
नज़र आ रहे है वही अजनबी से।
रवायत शायद ये सदियों पुरानी,
शिक़ायत नही है कोई ज़िंदगी से॥

आज के दौर में ए दोस्त ये मंजर क्यों है?

--- सुदर्शन फ़कीर

आज के दौर में ए दोस्त ये मंजर क्यों है?
ज़ख्म हर सर पे, हर हाथ में पत्थर क्यों है?

जब हकीक़त है कि हर जर्रे में तू रहता है,
फिर ज़मीन पर कहीं मस्जिद, कहीं मंदिर क्यों है?

अपना अंजाम तो मालूम है सबको फिर भी,
अपनी नज़रों में हर इंसान सिकंदर क्यों है?

ज़िंदगी जीने के काबिल ही नही अब 'फ़कीर',
वर्ना हर आँख में अश्कों का समुन्दर क्यों है?

शेख़जी थोड़ी-सी पीकर आइये

--- सुदर्शन फ़कीर

शेख़जी थोड़ी-सी पीकर आइये,
मय है क्या शह फिर हमें बतलाइए।

आप क्यों है सारी दुनिया से खफ़ा?
आप-भी दुश्मन मेरे बन जाइए।

क्या है अच्छा, क्या बुरा है बन्दा-नवाज़?
आप समझे तो हमें समझाइए।

जाने दीजे अक्ल कि बातें जनाब,
दिल कि सुनीये और पीते जाइए।

कौन कहता है तुझे मैंने भुला रखा है

--- जाँ निसार अख्तर

कौन कहता है तुझे मैंने भुला रखा है,
तेरी यादों को कलेजे से लगा रखा है।

लब पे आहें भी नही, आखँ में आंसू भी नही,
दिल ने हर राज़ मुहब्बत का छुपा रखा है।

तुने जो दिल के अँधेरे में जलाया था कभी,
वो दिया अज भी सीने में जला रखा है।

देख जा आके महकते हुए ज़ख्मों कि बहार,
मैंने अब तक तेरे गुलशन को सजा रखा है।

बस इक़ झिझक है येही हाल-ए-दिल सुनाने में

--- कैफ़ी आज़मी

बस इक़ झिझक है येही हाल-ए-दिल सुनाने में,

कि तेरा जिक्र भी आएगा इस फ़साने में।

बरस पडी थी जो रुख़ से नकाब उठाने में,
वो चांदनी है अभी तक मेरे ग़रीब-खाने में।

इसी में इश्क़ कि किस्मत बदल भी सकती थी,
जो वक़्त बीत गया मुझको आज़माने में।

ये कह कि टूट पडा शाख़-ए-गुल से आखरी फूल,
अब और देर है कितनी बहार आने में।

सोमवार, 26 नवंबर 2007

हमारे 'जीवित' गाँव

कल हम अपनी शोर्ट-फिल्म कि शूटिंग के लिए जगेहों का चुनाव करने एक गाँव गए थे। जैसे-जैसे हम शहर से गाँव कि तरफ बढ़ने लगे, लगने लगा जैसे अपने मूलभूत बिन्दु कि तरफ बढ़ रहे हो. जैसे-जैसे हम शहर के जहरीले प्रदुषण से दूर जा रहे थे, मिटटी कि भीनी-भीनी खुशबु हमें अपनी ओर आकर्षित का रही थी।
सिर्फ कुछ घंटे उस गाँव में गुजारने के बाद ऐसा लगा कि ज़िंदगी उन चीजों के बगैर भी गुजारी जा सकती है जिन्हें हम अपने जीवन का अभिन्न अंग मान चुके है। उस गाँव में किसी भी मोबाइल का नेटवर्क नही रहता, तो हम लोग ना तो किसी को फ़ोन कर सके और न ही किसी से फ़ोन पर बात कर सके। फिर भी सबकुछ अपनी जगह पर था। शाम होते ही जहाँ हम शहर वाले उजालों कि तलाश में भागा करते है, गाँव में शाम होते ही अँधेरा और घना हो जाता है। गाँव में शाम के बाद लोड-शेडिंग कि 'व्यवस्था' सरकार ने कर रखी है। लेकिन अभी भी ज़मीन पर बसे गाँव में एक छोटे दिए कि बाती ही रौशनी के लिए काफी होती है।
जिन वस्तुओं को हम 'अँन्टिक' कहकर घर के किसी कोने में धुल खाने के लिए रख देते है, वो वस्तुएं आज भी गाँव के जीवन का एक हिस्सा है। अगर सही में कुछ 'अँन्टिक' बनकर रह गया है तो वो ये सुंदर जीवन है, जिसे हम स्वेच्छा से छोड़ आये है और उस ओर मुड़कर भी देखना नही चाहते। जीवन का वो रंग बस उन गाँव में ही मिल सकता है, हमारे पत्थरों के जंगल में नही।