सोमवार, 26 नवंबर 2007

हमारे 'जीवित' गाँव

कल हम अपनी शोर्ट-फिल्म कि शूटिंग के लिए जगेहों का चुनाव करने एक गाँव गए थे। जैसे-जैसे हम शहर से गाँव कि तरफ बढ़ने लगे, लगने लगा जैसे अपने मूलभूत बिन्दु कि तरफ बढ़ रहे हो. जैसे-जैसे हम शहर के जहरीले प्रदुषण से दूर जा रहे थे, मिटटी कि भीनी-भीनी खुशबु हमें अपनी ओर आकर्षित का रही थी।
सिर्फ कुछ घंटे उस गाँव में गुजारने के बाद ऐसा लगा कि ज़िंदगी उन चीजों के बगैर भी गुजारी जा सकती है जिन्हें हम अपने जीवन का अभिन्न अंग मान चुके है। उस गाँव में किसी भी मोबाइल का नेटवर्क नही रहता, तो हम लोग ना तो किसी को फ़ोन कर सके और न ही किसी से फ़ोन पर बात कर सके। फिर भी सबकुछ अपनी जगह पर था। शाम होते ही जहाँ हम शहर वाले उजालों कि तलाश में भागा करते है, गाँव में शाम होते ही अँधेरा और घना हो जाता है। गाँव में शाम के बाद लोड-शेडिंग कि 'व्यवस्था' सरकार ने कर रखी है। लेकिन अभी भी ज़मीन पर बसे गाँव में एक छोटे दिए कि बाती ही रौशनी के लिए काफी होती है।
जिन वस्तुओं को हम 'अँन्टिक' कहकर घर के किसी कोने में धुल खाने के लिए रख देते है, वो वस्तुएं आज भी गाँव के जीवन का एक हिस्सा है। अगर सही में कुछ 'अँन्टिक' बनकर रह गया है तो वो ये सुंदर जीवन है, जिसे हम स्वेच्छा से छोड़ आये है और उस ओर मुड़कर भी देखना नही चाहते। जीवन का वो रंग बस उन गाँव में ही मिल सकता है, हमारे पत्थरों के जंगल में नही।

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