--- कैफ़ी आज़मी
बस इक़ झिझक है येही हाल-ए-दिल सुनाने में,
कि तेरा जिक्र भी आएगा इस फ़साने में।
बरस पडी थी जो रुख़ से नकाब उठाने में,
वो चांदनी है अभी तक मेरे ग़रीब-खाने में।
इसी में इश्क़ कि किस्मत बदल भी सकती थी,
जो वक़्त बीत गया मुझको आज़माने में।
ये कह कि टूट पडा शाख़-ए-गुल से आखरी फूल,
अब और देर है कितनी बहार आने में।
मंगलवार, 27 नवंबर 2007
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