बुधवार, 30 जनवरी 2008

महान कौन? गांधीजी या क्रिकेट?

महात्मा गांधीजी की कल ६०वी पुण्यतिथि थी। सारे देश ने कल बापू को याद किया होगा ये कहने थोड़ा मुश्किल है. क्यूंकि हम लोगों को अब इस बात से कोई फर्क नही पढता की बापू के दर्जे की हस्तियाँ कब पैदा हुई और कब इस संसार से चली गई. हम ये भी जानना नही चाहते की आज जिस खुली हवा में हम लोग साँस ले रहे है, उस हवा में आज़ादी की खुशबु मिलाने के लिए इन लोगों ने क्या-क्या बलिदान किए है.

आम लोग अपनी व्यस्त दिनचर्या की वज़ह से इन बातों को याद नही रख पाते, और मीडिया इन बातों को याद रखना नही चाहता. कल ६०वि पुण्यतिथि के उपलक्ष में बापू की अस्थियों को मुम्बई के गिरगांव चौपाटी में विसर्जित किया गया. इस मौके पर महेज सौ लोग भी उपस्थित नही थे. ये वो देश है जहाँ २०-२० मैच में एक घंटा आढा-तिरछा बल्ला घुमाने के बाद हमारी टीम जब वर्ल्ड कप जीत कर लाती है तो मुम्बई में इनका ऐसा स्वागत किया जाता है माओनी दुनिया जीत कर आए है. लोग अपने काम छोड़कर टीम के सदस्यों की एक झलक पाने के लिए टूट पढ़ते है. और मीडिया सुबह से उन सड़कों की ख़ाक छान रहा होता है जहाँ से वो जुलूस गुजरने वाला है.
हम हिन्दुस्तानियों के दिल में अब सबसे महत्वपूर्ण कोई बात अगर है तो वो है क्रिकेट. क्रिकेट हमारा धर्म बन गया है. हमारे न्यूज़ चैनल्स क्रिकेट के अलावा कुछ और दिखाना नही चाहते, मानो न्यूज़ चैनल नही बल्कि क्रिकेट चैनल हो. दरअसल उन्हें ये दर्जा दे ही देना चाहिए.
मुम्बई में जिस दिन एक कार धमाके में चार बच्चों की मौत हुई, तब हमारे न्यूज़ चैनल बड़े गर्व से दिन भर ये दिखाते रहे की हरभजन सिंग मामले में कैसे हिंदुस्तान ने ऑस्ट्रेलिया को झुका दिया. हिंदुस्तान की इस जीत पर कोलकाता और अन्य जगहों पर फटाके जलाये गए, जिसे दिखाना हमारे न्यूज़ चैनल्स कतई नही भूले. लेकिन किसी के पास इतना वक्त नही था की उन मासूम बच्चों की मौत की ख़बर दिखा सके. उसमें किसकी गलती थी, ये सामने ला सके.
दुसरे दिन, जब मानवीय अंगों के नाजायज धंधे की बात सामने आई, तब हमारे चैनल्स दिखा रहे थे की "चोट लगने की वजेह से युवराज सिंग पहले वन-डे नही खेलना चाहते".
और आज, गांधीजी की अस्थियों का विसर्जन कल किस तरह किया गया ये दिखाने की बजाय, हमें दिखाया जा रहा है "हरभजन मामले में दिए गए निर्णय से रिक्की पोंटिंग खुश नही".
जब जिम्मेदारी की बात आती है, तो हमारे न्यूज़ चैनल्स धंधे की बात करते है, और ये कहते हुए अपना पल्लू झाड़ना चाहते है की "हम वही दिखाते है जो लोग देखना चाहते है". क्या ये तर्क सही है? मुझे नही लगता. कल अगर लोग ये कहे की हाथ में तलवार और बंदूकें लेकर घूमने से उन्हें सुरक्षित महसूस होता है, तो क्या लोगों में तलवारें और बंदूकें बाटें जायेंगे?
कुछ परिस्तिथियाँ जितनी ख़राब होती है उतनी वो पहले नज़र नही आती. हम लोगों के लिए सचिन तेंदुलकर, वीरेंदर सहवाग और अनिल कुंबले अगर महात्मा गाँधी से बढ़कर होने लगे, तो ये एक खतरे की घंटी हो सकती है. क्या हमारा देश इतना संपन्न हो चुका है की अब क्रिकेट के अलावा कुछ बचा ही नही है. हमारे देश में अभी भी हर नागरिक दो वक्त का खाना नही मिलता. लोग अभी भी रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत ज़रूरतों के लिए मोहताज है. और ऐसी हालातों को नज़रंदाज करके अगर हम क्रिकेट को महत्व देना चाहते है, तो येही लगता है की गांधीजी ने देश के लिए इतना बलिदान करने की बजाय क्रिकेट खेलना चाहिए था. कम से कम हम उन्हें आज याद तो करते!

2 टिप्‍पणियां:

Ashish Maharishi ने कहा…

कभी कभी तो खुद तो पत्रकार कहते हुए भी शर्म आती है, लेकिन कल समय और एनडीटीवी का बापू पर विशेष कार्यक्रम सराहनीय था

மதியழகன் சுப்பையா ने कहा…

Namaste,
App ko bhi tho main ne wahaan nahi dekha? ( Main Wahaan maujudh thaa) Is Baat pe kashta ho ne ki jarurath nahi hai. Gandhi jab te tab hero te, aaj Criket hero hai. Kal aur kuch ho sakthaa hai.
In makkiyoon (flys) ke peeche math pado. Appni nayi raaha banaavO, chal pado, hum aap ke saath hai...
( Good write up)

Madhi